क्या हमें बेटी होने का गिल्ट है? तो फिर हम क्यों बेटी को बेटों की तरह पालने की ज़िद पर आमादा हो गए? ना जी ना, हम तो भई बड़े मॉडर्न ख्याल वाले लोग हैं। हम तो अपनी बेटियों को बेटों की तरह पालते हैं। हमारी बेटियां ही हमारे बेटे हैं। अक्सर सो कॉल्ड मॉडर्न लोगों से अपनी बेटियों के बारे में कुछ ऐसा ही कहते सुना होगा।
मॉडर्नता की गलती
लेकिन मैं जब इस तरह की बात सुनती हूं तो मन एक सवाल करता है आखिर ऐसी कौन सी मुसीबत इन लोगों पर आ गई जो इन्हें बेटियों को बेटों की तरह पालना पड़ा है। कहीं ऐसा तो नहीं, अपने आप को मॉडर्न कहने वाले यह लोग बेटी होने की गिल्ट में हैं? और अगर ऐसा नहीं है तो फिर ऐसा क्या हो गया कि हम बेटियों को बेटों की तरह पालने लगे?
घर के काम और लिंग भेद
भई घर का काम नहीं कराएंगे? लड़की को लड़कों की तरह पालने में सबसे पहला कदम यह उठाया जाता है कि उससे घर के काम नहीं कराए जाते। बड़ी शान से बताया जाता है कि हमारी बेटी को तो चावल उबालने भी नहीं आते। लेकिन एक बार जरा सोचें कि यह किसने कहा कि घर के काम सिर्फ लड़की को करने हैं या यह किसने तय किया कि यह लड़कियों के काम हैं।
समानता और घर के काम
हम लोग पीढियों से अपने बेटों को घर के काम नहीं करने देते। हां आज से बीस साल पहले मां जरुर सयानी होती बेटी को अपने साथ लगाया करती थी। लेकिन गलती कर दी मॉडर्न बनने के चक्कर में हमने बेटी को रसोई से निकाल दिया। जबकि होना यह चाहिए था कि बेटे को भी उन घरेलू कामों में शामिल होने का मोका देते।
प्राकृतिक गुण और समानता
एक बेसिक नेचर बात चाहे अच्छी लगे या बुरी, लेकिन यह एक सच्चाई यही है कि महिला कभी पुरुष नहीं बन सकती और न ही पुरुष कभी महिला। दोनों का एक बेसिक नेचर है। हम यह नहीं कह रहे कि आप बेटी को एक परी बनाकर पालें। उसे गुडि़या बनाकर पालें। उसे खेलने के लिए केवल गुडि़या दें। अगर वो खिलौने वाली बंदूक चलाना चाहती है तो उसे वह लाकर दें। लेकिन उसके अंदर स्त्रीत्व का स्वाभाविक गुण है वो आप नहीं बदल सकते। वो गुण बदलना चाहिए भी नहीं।
इसलिए, अपनी बेटी को शेरनी की तरह पालें, जो सशक्त, स्वतंत्र और अपने आप में पूर्ण हो। उसे शेर नहीं बनाना है, बल्कि अपने आप को एक सशक्त महिला के रूप में विकसित करने का मौका देना है।