आपमें से कितने लोगों ने टीवी पर किसी प्रोग्राम को देखने के लिए हफ्ते भर इंतज़ार किया है। वो फिल्मी गाने देखने के लिए चित्रहार का इंतजार, रामायण महाभारत के लिए रविवार का इंतज़ार । मुंगेरी लाल के सपने से लेकर चंद्रकांता की कहानी। डकटेल्स से लेकर जंगल बुक की कहानी। न जाने कितने प्रोग्राम जो दिलों के कोने में आज भी बसे हैं। इन प्रोग्राम्स से ज़्यादा इन्हें देखने की जद्दोजहद हमारी यादों का खूबसूरत हिस्सा है। डीडी 1 से लेकर डीडी 2 पर आने वाले प्रोग्रामों के प्रसारित होने के लिए इंतज़ार का जो मज़ा था, वो उन खुशनुमा यादों की तरह है, जिसकी याद आते ही चेहरे पर मुस्कान के साथ एक अजीब सी खुशी महसूस होती है। मनोरंजन ने डीडी 1 से ओटीटी तक का लम्बा सफर तय कर लिया है। आज हफ्तों इंतज़ार करने की बजाय जब चाहें जहां चाहें आप अपना मनपसंद प्रोग्राम देख सकते हैं और एक बार नहीं, बार-बार देख सकते हैं। फिर भी वो खुशी, वो तसल्ली और मनोरंजन का वो अहसास नहीं मिलता। क्या इसका जवाब है हमारे पास। शायद नहीं, पर एक बात जो ग़ौर करने लायक है, वो है कि दिल और दिमाग को तरोताजा करने के लिए बना मनोरंजन अब बड़ों से लेकर बच्चों के लिए एडिक्शन बन चुका है।
नजरें मोबाइल पर और मुस्कुराना हुआ दुश्वार
मेट्रो में डेली लाखों लोग यात्रा करते हैं। एक ही रास्ता, एक ही मंजिल होने के बावजूद लोग किसी से बातचीत तो दूर, किसी की तरफ देखकर मुस्कुराना भी दुश्वार है। वजह कान में हेडफोन और मोबाइल पर चलता उनका पसंदीदा प्रोग्राम। लम्बे सफर में लोग ओटीटी पर मौजूद अपने पसंदीदा प्रोग्राम को देखते हुए सफर को काटना पसंद करने लगे हैं। कई बार सफर के दौरान हमें ऐसे लोग मिल जाते थे, जिनसे एक रिश्ता बन जाता। लेकिन मनोरंजन का लोगों पर घर के अंदर ही नहीं, बाहरी दुनिया में भी ऐसा नशा चढ़ा है कि वो किसी को देखकर बात करना तो दूर, मुस्कुराना भी भूल रहे हैं।
अति की कहावत से समझें
वैसे तो आजकल इंस्टैंट का जमाना है। खाना हो या दिल को खुश करने के लिए मनोरंजन, सबकुछ फटाफट मिल जाता है। लेकिन इस फटाफट जमाने में कुछ खो सा गया है। कुछ अच्छा खाने या मनोरंजन के लिए देखने के लिए इंतजार का मीठा स्वाद इस इंस्टेंट ज़माने से गायब हो गया है। अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप। यह कहावत आज के परिप्रेक्ष्य में एकदम सटीक बैठती है।
हमारे बचपन के दौर में मनोरंजन के लिए जितने कम ऑप्शन थे, उससे दुगुना आनंद उसमें मिलता था। गाने सुनने और एक्टर्स के डांस देखने के लिए पूरे हफ्ते चित्रहार का इंतज़ार कर वो चार-पांच गाने देख जैसे पूरी फिल्म देखने का मज़ा मिल जाता। जैसे-जैसे घड़ी की सुई आगे बढ़ती, दिल में धुकधुक होने लगती कि अब चित्रहार खत्म होने वाला है। एक और गाने की लालसा के साथ भले ही दिल उदास हो जाता, लेकिन चित्रहार का आनंद पूरे हफ्ते मन में समाया रहता।
वैसे ही पौराणिक सीरियल्स रामायण और महाभारत का दौर आज भी उस दौर के बचपन की एक मीठी यादों का हिस्सा है। बच्चों के कार्टून हों या बड़ों के सीरियल, सभी उम्र के लोगों के लिए होता था। अंकल स्क्रूज़ के किस्से और मोगली की जिंदगी सबके दिलों में बसी है। वो आनंद ओटीटी पर हर हफ्ते नई सीरीज़ स्ट्रीम होने के बावजूद नहीं महसूस होती।
आज ओटीटी प्लेटफॉर्म के ज़रिये मोबाइल पर कभी भी, कहीं भी सीरीज़ देखते हुए लोग दिख जाते हैं। लेकिन उनके चेहरे पर वो सुकून और आनंद नज़र नहीं आता। क्योंकि वो सीरीज़ का आनंद कम, उसे निपटाने की जल्दी में रहते हैं। तो भइया भले ही आज कहीं भी, कभी भी मनोरंजन के लिए ऑप्शन है, लेकिन यह अति की भली न... वाली कहावत की तरह सच है। अति हो गई है मनोरंजन की जो अच्छी नहीं।
मनोरंजन नहीं, एडिक्शन बन गया
ऐसा नहीं है कि लोगों को मनोरंजन के लिए इंतज़ार का ही दौर सुहाना लगता है। केबल टीवी पर चैनल्स आने के बाद भी सीरियल्स की एक तय सीमा और प्रसारण का समय था जिससे मनोरंजन के लिए ऑप्शन बढ़ गए थे। उस दौर में सीरियल्स ने दर्शकों के बीच किरदारों को हर घर में जगह बनाने में मदद की। सालों-साल वही सीरियल देख लोग बोर नहीं होते, बल्कि सास-बहू और साजिश के उस दौर में उन किरदारों की भलाई और बुराई गॉसिप का हिस्सा बन गए थे।
धीरे-धीरे मनोरंजन के सफर ने हफ्ते के एक दिन से दर्शकों के सामने ओटीटी का हर समय उपलब्ध ऑप्शन दिया। ये ऑप्शन लोगों के लिए मनोरंजन से ज्यादा एडिक्शन बनता नजर आ रहा है। बच्चे हों या बड़े, सभी के हाथों में मोबाइल है और घंटों अपनी पसंद की सीरीज़ देखते नजर आते हैं।
हां, कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि सीरीज़ भी कुछ घंटों की ही तो होती है। तो आप सही हैं, लेकिन सीरीज़ के स्ट्रीम होते ही उसे खत्म करने के लिए एक ही दिन में उसे देखने वालों की कमी नहीं है। जो कंटेंट बच्चों के साथ नहीं देख सकते, वो उनके सोने के बाद पूरी रात जागकर उसे देखना ये एडिक्शन नहीं तो क्या है।