जब से विनोद कुमार शुक्ल को साहित्य के बड़े अवॉर्ड ज्ञानपीठ के मिलने की घोषणा हुई है, किताबों को पसंद करने वाले इंटेलेक्चुअल लोगों के सोशल मीडिया अकाउंट भरे हुए हैं। अगर आप लोग भी किताबों को पसंद करते हैं तो आपके लिए भी यह गर्व का विषय है कि एक ऐसा लेखक और हिंदी का वो कहानीकार आपके बीच में मौजूद है, जो अपने सपनों को शब्दों का आकार देते हैं। उनके सपनों की दुनिया बहुत खूबसूरत है। रायपुर के रहने वाले विनोद कुमार शुक्ल एक सादा सा जीवन जीते हैं। जाहिर है आप समझ ही गए होंगे कि वो एक प्रकृति प्रेमी भी हैं। उनकी एक कविता है कितना बहुत है, जहां छोटी-छोटी बातों में आप भावनाओं की गहराई को समझ सकते हैं। वो कविता कुछ यों है—
कितना बहुत है
परंतु अतिरिक्त एक भी नहीं
एक पेड़ में कितनी सारी पत्तियाँ
अतिरिक्त एक पत्ती नहीं
एक कोंपल नहीं अतिरिक्त
एक नक्षत्र अनगिन होने के बाद।
अतिरिक्त नहीं है गंगा अकेली एक होने के बाद—
न उसका एक कलश गंगाजल,
बाढ़ से भरी एक ब्रह्मपुत्र
न उसका एक अंजुलि जल
और इतना सारा एक आकाश
न उसकी एक छोटी अंतहीन झलक।
कितनी कमी है
तुम ही नहीं हो केवल बंधु
सब ही
परंतु अतिरिक्त एक बंधु नहीं।
चलिए आपने इस कविता के जरिए उनके दर्शन को समझ लिया, अब जानिए कि उनकी वो कौन सी तीन किताबें हैं जो आपको ज़रूर पढ़नी चाहिए।
नौकर की कमीज
राजकमल प्रकाशन से विनोद का यह उपन्यास साल 1979 में प्रकाशित हुआ था। प्रकाशित होते ही यह उपन्यास चर्चा में आ गया था और बहुत सी अलग-अलग भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ था। इस उपन्यास पर एक फिल्म भी बन चुकी है। नौकर की कमीज़ उपन्यास एक भारतीय पुरुष की कहानी को बताता है। कहानी के सभी पात्र इतने सादे हैं कि आपको पढ़ते समय लगेगा जैसे आप इन लोगों से कहीं मिल चुके हैं। सबसे बड़ी बात है कि इसमें आपको लेखक की क्रिएटिविटी के साथ उसकी पात्रों को लेकर एक प्रैक्टिकल सोच भी नज़र आएगी। इस कहानी का मुख्य पात्र संत बाबू है। यह एक बहुत ही भोला-भाला सा इंसान है जो परिस्थितियों के आगे विवश सा नज़र आता है। आपको इसमें लालफीताशाही के बारे में भी पता चलेगा। यह उपन्यास किसी पर प्रहार नहीं करता बल्कि आपके सामने एक बेबस आदमी की मजबूरी को बयां करता है। इस उपन्यास की खास बात इसकी व्यंग्यात्मक शैली भी है।
दीवार में एक खिड़की रहती थी
विनोद कुमार शुक्ल का यह उपन्यास साल 1999 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था। आप इसके नाम से ही समझ सकते हैं कि दीवार की खिड़की भी एक प्रमुख कथानायक की तरह थी। यह उपन्यास एक ऐसे आम से गणित के अध्यापक रघुवर प्रसाद की कहानी है, जिसके पास अपने जीवन में कोई बहुत बड़ी योजनाएं नहीं हैं। वो जीवन में कोई बहुत बड़े सपने नहीं देखता। उसके जीवन में तो अपनी दैनिक ज़रूरतों के संघर्ष भी कुछ कम नहीं हैं। लेकिन इन सभी के बावजूद भी वो और उसकी पत्नी एक कमरे के छोटे से घर में अभावों से त्रस्त नहीं रहते बल्कि वो जो भी है जैसा है, उसमें खुश रहने का हुनर जानते हैं। आज के समय में अगर देखा जाए तो इस दृष्टिकोण को समझने की नितांत आवश्यकता है। जहां वो ना केवल गांव से आने वाले रघुवर के परिवार के लोगों के साथ प्रेम करते हैं, बल्कि अपने आस-पड़ोस के लोगों से भी प्रेम और स्नेह की डोर से बंधे रहते हैं। यही वजह है कि जब सोनसी अपने मायके जाती है तो आस-पड़ोस में रहने वाले रघुवर के खान-पान का भरपूर ख़्याल रखते हैं। इस उपन्यास के लिए साल 1999 में साहित्य पुरस्कार भी मिल चुका है।
हरे घास की चप्पल वाली झोंपड़ी और बौना पहाड़
राजकमल प्रकाशन की ओर से 2014 में प्रकाशित इस उपन्यास में आपको अमलताश का पेड़, मधुमक्खी, छप्पर, झोंपड़ी और छोटे से पहाड़ से कब मोहब्बत हो जाएगी आपको पता भी नहीं चलेगा। यह उपन्यास बच्चों के साथ ही बड़ों के लिए भी है। इस उपन्यास को जब आप पढ़ेंगे तो आप जान पाएंगे कि वाकई सरल बातों को विनोद कुमार शुक्ल पाठक के सामने रख देते हैं। इसे अगर आप एक जादुई यथार्थवाद कहेंगे या फैंटेसी तो कुछ भी गलत नहीं है। इसमें भाषा की चमक है। बच्चों की मासूमियत है, अल्हड़पन है। अगर आप चाहते हैं कि आप या आपके बच्चे हिंदी में कुछ अच्छा सीखें या पढ़ें तो आपको यह उपन्यास ज़रूर ही पढ़ना चाहिए।
फिलहाल के लिए अलविदा और विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ अवॉर्ड के लिए बहुत बधाई। विनोद जी पिछले पचास साल से लेखन में सक्रिय हैं। हम आशा करते हैं कि वे ऐसे ही लिखते रहें और हम लोग उनके शब्दों के मोहपाश में बंधे रहें।