अगर हम इस दौर की बात करें तो पिछले दस सालों के मुक़ाबले एंजाइटी, हाइपरटेंशन, डिप्रेशन जैसी ना जाने कितनी चीज़ों का लोग सामना कर रहे हैं। तमाम तरह की सहूलतों के बावजूद भी लोगों का मेंटल पीस जैसे कहीं खो सा गया है। अपने आस-पास लोगों के चेहरे को देखिए, चेहरे को चमक देती हुई मुस्कुराहट जैसे नज़र ही नहीं आती। अब तो हर किसी की पेशानी फ़िक्र की सिलवटों से नज़र आती है। मैं भी आप ही लोगों की तरह हूँ और अपनी ज़िंदगी की छोटी-छोटी परेशानियों को लेकर ज़्यादा परेशान हो जाना सभी की तरह मेरी भी फ़ितरत में शामिल है। लेकिन कुछ दिनों पहले एक छोटी सी वजह से मेरे अस्पताल के चक्कर लगे और ऑपरेशन थिएटर के बाहर लोगों को देखकर मैंने जाना कि परेशानी होती क्या है। आपको बताती हूँ अपना तजुर्बा।
ऊपर वाले ने बचा लिया
ओटी के बाहर एक आदमी ठीक मेरे आगे खड़ा था। उसका एक हाथ कुछ टेढ़ा सा था। मुझे लगा वो अटेंडेंट है शायद। लेकिन पता चला कि उसका अपना ऑपरेशन दो दिन बाद है। उसकी प्लास्टिक सर्जरी होनी थी। वो प्री-एनेस्थेसिया चैकअप के लिए आया था। उसके हाथ में रोड लगी थी, वो कुछ टेढ़ी हो गई थी। इसमें इंफेक्शन भी हो गया था और अब प्लास्टिक सर्जरी होनी थी। वो कहने लगा- अभी तो जांच ही होनी है, इसलिए अकेला आ गया हूँ। क्या फ़ायदा बच्चे को परेशान करने का? उसकी प्राइवेट नौकरी है, वैसे भी परसों तो छुट्टी लेगा ही।
मैं सोचने लगी, यह बूढ़ा आदमी कितना इंडिपेंडेंट है। लेकिन अभी तो एक और हिम्मत की कहानी उसकी बाक़ी थी। वो कहने लगा- "मैडम मेरी क़िस्मत बहुत अच्छी है। यह जो मेरा हाथ है ना, पूरा ही मशीन में आ जाता, लेकिन कोई लिया-दिया काम में आ गया कि लाइट चली गई। टेढ़ा हो गया तो कोई बात नहीं, कम से कम हाथ तो सलामत है।" मैंने हाँ में सिर हिला दिया लेकिन कहीं ना कहीं इस बात को समझा कि इस आदमी के अंदर कितनी पॉज़िटिविटी है।
बहुत सी बातें हैं
अमूमन ऐसा होता नहीं है कि आप ऑपरेशन थिएटर के बाहर खड़े होते हैं। मेरे लिए भी यह अपनी तरह का पहला तजुर्बा था। इस ओटी के बाहर कुछ लोग थे जो बहुत परेशान थे, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जो अपनी परेशानी को कैसे संभालना है और पेनिक सिचुएशन को क्रिएट ना होने देने का हुनर भी जानते थे।
दिव्यकीर्ती सर की बात याद आ गई
इस ओटी के बाहर खड़े होकर मुझे एजुकेटर और ऑथर विकास दिव्यकीर्ती की वो बात याद आ गई जब उन्होंने कहा था कि “जब भी उदास होता हूँ, दो चीज़ें कर लेता हूँ। किसी आईसीयू के बाहर खड़ा हो जाता हूँ, देखता हूँ कि मरीज़ के परिजन कितना परेशान हो रहे होते हैं। किसी शमशान जाता हूँ और देखता हूँ उस स्थिति को। तब समझ में आता है कि मेरी हर परेशानी इन परेशानियों के सामने बौनी है।“
आप भी जब कभी परेशान हों तो इस बात को समझकर देखिए। आप अपनी ज़िंदगी में रोज़ आने वाली परेशानियों को बेहद हल्के में लेना शुरू कर देंगे। वैसे भी ज़िंदगी है तो परेशानियों का आना तय है। बस यह हम पर डिपेंड करता है कि हम परेशानियों पर हावी होते हैं या परेशानियां हम पर।