वो कहते हैं ना जो हमारे बड़े होते हैं, हमारी ज़िंदगी, हमारी पर्सनालिटी कहीं ना कहीं उनसे इंस्पायर्ड होती है। मेरी भी एक नॉर्मल मिडिल क्लास फैमिली में ज़िंदगी बीती है और मां के साथ-साथ अपनी ताईजी, बुआ और मौसियों से मैंने बहुत कुछ सीखा है। हाल ही में मुझे अपनी मौसी के घर जाना हुआ। मेरी प्यारी बड़ी मौसी एक बहुत ही सादा सी ज़िंदगी जीती हैं। वो बहुत प्यारी भी हैं। मैं बचपन से देखती आ रही हूं कि अपने सामान को करीने से रखना और पुराने सामान को इस्तेमाल करना उनकी आदत में शुमार है। ऐसी ही उनके पास एक बहुत प्यारी सी चीज़ है — उनकी छोटी सी एक ड्रेसिंग टेबल। वो इतनी छोटी सी ड्रेसिंग टेबल है कि आप उसे एक शेल्फ में भी रख सकते हैं। यह मौसी की अपनी दहेज की ड्रेसिंग टेबल है जिसमें आज भी वो ख़ुशी-ख़ुशी तैयार होती हैं।
तो मैंने क्या सीखा
हां तो मैं बताती हूं कि इस ड्रेसिंग टेबल में ऐसा क्या था जो मेरे लिए सीख बन गया। असल में इस ड्रेसिंग टेबल को देखना मेरे लिए एक्साइटमेंट से कम नहीं रहता था। इसमें एक छोटा सा आईना है और उसके नीचे एक दराज़ है। बचपन से ही जब भी मैं अपनी मौसी के घर जाती थी उस दराज़ को ज़रूर टटोला करती थी। इस बार भी जब मैंने उस ड्रेसिंग टेबल को देखा और उसकी तारीफ़ की तो मौसी बोलीं — हां यह ड्रेसिंग टेबल बहुत अच्छी है। मेरी शादी में भाई साहब यानी मेरे नाना (जिन्हें वो भाई साहब कहती हैं) ने बनवाकर दी थी।
मेरे लिए वाकई यह हैरान कर देने वाली बात थी। मेरी मौसी की शादी को पचास साल से भी ज़्यादा का समय बीत चुका है। वो जब अपनी ड्रेसिंग टेबल के बारे में बता रही थीं तो उनकी बातों से ही पता चल रहा था कि वो कितनी इमोशनली अटैच हैं उस ड्रेसिंग टेबल के साथ। शायद यही वजह है कि इतनी सादी सी ड्रेसिंग टेबल को उन्होंने बहुत करीने से अपनी आंखों के सामने, अपने पिता की निशानी समझकर रख रखा है। इतना ही नहीं, उन्होंने वो अपनी पुरानी कैंची भी मुझे दिखाई जो उनके दहेज में आई थी और अपनी सिलाई मशीन के बारे में भी बताया कि — मेरी मशीन आज भी सबसे अच्छी चलती है।
सोचने की बारी मेरी थी
मैं उनकी बातों को सुनकर सोचने लगी कि हम आज के दौर के लोग खुद को बहुत इमोशनल समझते हैं। मुझे लगता है कि मैं बहुत सेंसिबल हूं, मैं बहुत सेंसिटिव हूं। लेकिन नहीं — इमोशन की गहराई को अगर हमें समझना है तो उस कैंची, ड्रेसिंग टेबल और सिलाई मशीन से समझा जा सकता है। मेरे नाना 70 के दशक में इस दुनिया को छोड़ चुके हैं। लेकिन उनकी बेटी यानी मेरी मौसी ने अपने पापा की चीज़ों को सहेज कर रखा है। वो चीज़ें भले ही पुरानी हो गई हैं लेकिन उन चीज़ों से जुड़ाव आज भी उन्हें इस्तेमालशुदा बनाए हुए है।
यह बात सिर्फ मेरी मौसी की नहीं है। पिछली पीढ़ी के लगभग हर लोग इस तरह की पुरानी यादों से भरी महकती चीज़ों के साथ अपनी ज़िंदगी को ताज़ा रखते थे। कोई अपनी मां का पुराना बटुआ इस्तेमाल करता था, तो कोई पिता की घड़ी।
यह आज हमें सीखने की ज़रूरत है
चीज़ों का इस्तेमाल करना, उनका रखरखाव करना — यह सब चीज़ें हम भूल चुके हैं। हम टिशू इस्तेमाल करने वाले लोग हैं, जिन्हें नहीं पता कि बाज़ार से रफ़ कपड़ा लाने की ज़रूरत नहीं होती। अपनी पुरानी कमीज़, चादरों से ही रफ़ कपड़े बनाए जा सकते हैं। हमसे अगली जेनरेशन तो और भी हमसे दो हाथ आगे है। हम चीज़ों को खरीदना तो जानते हैं, लेकिन उन्हें कैसे बरता जाए, वो हम भूल चुके हैं। चीज़ों को रखने का एक सलीका, एक तरीका होता है। यह हमारी जेब के लिए ही नहीं, हमारे एनवायरमेंट के लिए भी ज़रूरी है।
हमारे पुराने लोग बहुत तरीक़े से अपने जीवन को गुज़ारते आए हैं। उनके पास अगर कोई चीज़ आ जाती थी तो ना तो वो उसे ख़राब होने देते थे और इस्तेमाल का तरीका भी ऐसा होता था कि वो रोज़ पहनी जाती थी लेकिन उसकी चमक में कोई कमी नहीं आती थी। आप घड़ी का ही उदाहरण ले सकते हैं। आज हम सभी के पास वॉचेज का एक कलेक्शन है, जबकि पहले के लोग केवल एक घड़ी में ही अपनी पूरी ज़िंदगी गुज़ार लेते थे। कम में जीने का तरीका और उसमें ख़ुश रहने की कला का हुनर — हमें आना ही चाहिए।