डाॅक्टर की डगर

डाॅक्टर की डगर

सुनो मैं एक डाॅक्टर हूँ, हाँ वही जो इस समाज की नज़र में सबसे प्रतिष्ठित जॉब है, कुछ लोगों की नज़र में कभी-कभी भगवान भी बन जाते हैं और कुछ की नज़रों में हम दुकान चला रहे हैं, खैर ये आर्टिकल नेगेटिव बातों के लिये नहीं है।

आज आपको ले चलते हैं डाॅक्टर की ज़िंदगी के टूर पर। ये बात है मेरे 8 क्लास की। सब कुछ एकदम बढ़िया था फिर एक दिन घर पर शाम को खाने के बाद बात होने लगी कि बेटे को क्यों ना RPMT/CPMT की तैयारी करवाई जाये। सुन कर अच्छा ही फील आया, पता कहाँ था कि आगे क्या होने वाला है।

मैं आठवीं क्लास के बाद से ही सब को कहने लगा कि बड़े होकर डाॅक्टर बनना है। घर पर बात आई-गई हो गई। देखते ही देखते दसवीं में आ गये। बोर्ड का प्रेशर वाला एग्जाम। सब यही कहते थे कि दसवीं अच्छे से कर लो फिर आगे मज़े ही मज़े हैं।

खैर दसवीं भी हो गई। सब कुछ वैसा ही रहा जैसा एक भावी डाॅक्टर होने के लिये ज़रूरी है। वही नंबरों की बाढ़ सी आ गई थी। खैर ये ख़ुशी ज़्यादा सेलिब्रेट होते-होते कब एक ज़िम्मेदारी में बदल गई पता ही नहीं चला कि बेटे इतने अच्छे नंबर हैं तुम तो पहली बार में क्रैक कर दोगे। यही आवाज़ आस-पास सुनाई देती थी और सच कहूँ मज़ा भी आ रहा था। अपने रिश्तेदारों को इतना पॉज़िटिव काफ़ी टाइम बाद देखा था। कभी-कभी डर भी लगता लेकिन अपने एक दोस्त के पास जाता तो रिलैक्स हो जाता क्योंकि उसके और मेरे नंबर में ज़मीन-आसमान का फ़र्क था। उसका क्या हुआ करियर का, आगे बताऊँगा।

ग्यारहवीं के साथ कोचिंग शुरू हो गई। ज़िंदगी स्कूल और कोचिंग के बीच ही सिमट के रह गई। दोस्त का बर्थडे हो या किसी पड़ोस की कोई शादी, बस एक ही बात हावी थी कि एक बार सिलेक्ट हो जाओ फिर ये मौके बार-बार आते रहेंगे। खैर स्कूल, कोचिंग और वो खूबसूरत लड़कियों की मुस्कुराहट के बीच ज़िंदगी आगे बढ़ रही थी। मुझे भी पता था वो मुस्कुराहट उन लड़कियों की होती थी जो पढ़ने में सबसे कमज़ोर और नोट्स माँगने में सबसे आगे थीं। जो असल में दोस्त थे वो कभी नोट्स नहीं माँगते थे और उनमें से एक तो मुझको आइंस्टीन समझने लगा था। कहता था कि एग्ज़ाम से एक रात पहले पढ़ा देना भाई ताकि पास हो जाऊँ। सब के दोस्त एक जैसे ही होते हैं और कुछ जो अब नये-नये सटना शुरू हो गये थे, भाई उन्होंने खून पी रखा था। एक ख़ास बात बता देता हूँ कि इतनी सिटिंग हो जाती थी कि तशरीफ़ में दाने निकल कर सूख गये थे।

किताबों का ढेर था। ग्यारहवीं और बारहवीं हो चुकी थी। बस एक ही भूत सवार था कि एंट्रेंस हो जाये। खेल-कूद मस्ती को डेट दे रखी थी कि रिजल्ट के बाद सब कुछ करेंगे। खैर भागमभाग में एक दिन एग्ज़ाम का आ गया। हाॅल से निकलते वक़्त बड़ी अजीब फीलिंग थी, ख़ुश भी थे और टेंशन में भी। माहौल तो पॉज़िटिव था क्योंकि फ़ेलियर को लेकर घरवाले बहुत नॉर्मल थे लेकिन आप जब एक रेस में दौड़ते हो ना तो जीतने की फीलिंग आना बहुत नॉर्मल है। खैर रिजल्ट आ गया और हम कर गये क्वालीफाई...

आगे का अगले भाग में।

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