हाल ही में रिलीज हुई फिल्म ‘अडोलसेंस’ इन दिनों चर्चा में है। फिल्म में सोशल मीडिया बच्चों को किस हद तक प्रभावित कर रहा है, इसकी भाषा का अलग मतलब और इस प्लेटफॉर्म के जरिए मेंटल अब्यूस दिखाया गया है। आजकल बच्चे सोशल मीडिया और स्क्रीन के साथ समय बिताने की वजह से परिवार से दूर हो रहे हैं। जो कि चिंता का विषय है। लेकिन इससे बड़ी चिंता का विषय है वयस्कों का समाज में बदलता स्वरूप।
हाल ही में देश में हुई कई घटनाओं ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि इंसान की इंसानियत खत्म होती जा रही है और उसकी जगह जैसे जानवर ने ले ली है। इस बात को कुछ इस तरह से समझते हैं। कि हमारी प्रकृति ने बैलेंस बनाए रखने के लिए एक सिस्टम बनाया है। जिसे इको सिस्टम के फूडचेन के माध्यम से ज्यादातर लोगों ने स्कूल में पढ़ा ही होगा। कैसे सूरज पौधों को बढ़ने में मदद करता है। पौधों को शाकाहारी खाते हैं, शाकाहारी को मांसाहारी, फिर कुछ जीव जो पौधों और जानवरों दोनों को खाते हैं। लेकिन इस सिस्टम में एक ही प्रजाति का प्राणी अपनी ही प्रजाति के लोगों को नुकसान नहीं पहुंचाता। गौरतलब ये है कि इंसान आगे बढ़ने के लिए दूसरे इंसान को नुकसान पहुंचाते आ रहे हैं।
लेकिन अब तो हद ही हो गई है। मेरठ में मुस्कान ने अपने ही पति को बेरहमी से मार दिया। तो पुणे में पत्नी पर शक करने वाले पति ने अपने बेटे को मार दिया। कहीं कोई पेरेंट्स को मार रहा है तो सबसे घिनौना अपराध रेप देश में बढ़ता जा रहा है। छोटी बच्चियों से लेकर वृद्ध महिला कोई भी सुरक्षित नहीं है। आखिर इनके पीछे क्या वजह हैं। क्या वजह हैं जो इंसान इस हद तक बदल गया है।
बढ़ती महत्वाकांक्षाएं
इस बदलते स्वरूप के पीछे एक वजह हो सकती है बढ़ती महत्वाकांक्षाएं। पहले सिर्फ राजा अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए दूसरे राज्य पर आक्रमण करते थे। जिसकी वजह से इंसानों की जान जाती थी। आम लोग जितना पास होता था उसमें संतुष्ट रहते थे। आज ज्यादातर लोग दूसरों से खुद को बेहतर दिखाने या दूसरों की तरह जीवन जीने की कोशिश करते हैं। दूसरों से तुलना की वजह से वे अपनी स्थिति को दूसरों के जैसा दिखाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। अब रिश्तों में भी यही स्थिति है। अगर एक रिश्ते में सुख नहीं है तो कहीं और वो खुशी ढूंढने की कोशिश करते हैं। जिसके लिए अब समाज भी बदल रहा है। तलाक लेकर दूसरे रिश्ते में खुश रहा जा सकता है। लेकिन न जाने कौन सी महत्वाकांक्षा इंसान को हैवान बना रही है।
बदलती जीवनशैली और सामाजिक ढांचा
बदलती जीवनशैली और सामाजिक ढांचे की वजह से अब लोग बिना सोचे समझे काम करते हैं। जहां पहले अड़ोस-पड़ोस के लोगों को दूसरे के घर में होने वाली हर हरकत का पता रहता था। अब किसी को अपने घर में रहने वालों की ही खबर लेने की फुर्सत नहीं है। भले ही इस बात से बड़ी परेशानी होती हो कि पड़ोसी या पड़ोस में रहने वाली आंटी हर वक्त घर पर चुगली करने का मौका ढूंढती हैं। लेकिन वो आंटियां किसी हद तक बिना वर्दी की पुलिस थीं। जिनके डर से ज्यादातर लोग कुछ करने से पहले सौ बार सोचते थे। चार लोग क्या कहेंगे ये सोच कर गलत करने से पहले खुद ही सौ बार मन डर जाता था। लेकिन अब न तो वो चार लोग हैं और न ही उनकी कोई परवाह करता है।
बढ़ता स्ट्रेस और गुस्सा
आंकड़ों के मुताबिक मौजूदा समय में भारत में लगभग 77 प्रतिशत लोग स्ट्रेस में रहते हैं। एक बहुत बड़ा तबका किसी न किसी बात के दबाव के बोझ तले दबा हुआ है। ये स्ट्रेस धीरे-धीरे इंसान को कमजोर कर रहा है। जिसकी वजह से जरा सी बात पर इंसान आपा खो देता है। उसका गुस्से पर कंट्रोल नहीं रहता। न ही दिमाग सोचने-समझने की स्थिति में होता है।
किसी हद तक हम खुद ही हैं जिम्मेदार
आजकल एक कूल पेरेंट और कूल जेनरेशन का दौर चल रहा है। पेरेंट अपनी स्थिति से ज्यादा बच्चों की डिमांड पूरी करने की कोशिश करते हैं। जिसकी वजह से उन्हें 'ना' सुनने की आदत ही नहीं रहती और न ही मन मारकर जीने की आदत। ऐसे में विपरीत परिस्थितियों में वो खुद को संभाल नहीं पाते। वहीं बात करें बड़ों की तो घरों से दूर नौकरी के लिए बाहर आए लोग। सिर्फ नक्शे पर ही दूर नहीं होते, वे दिलों से भी दूर हो जाते हैं। ज्यादातर लोग अपने छोटे शहरों की सोच को पीछे छोड़ना चाहते हैं। जिसमें अपनापन और दूसरों की परवाह भी शामिल है। परेशानी आने पर अपनों से बात करने में भी हिचकते हैं। अकेले ही किसी भी स्थिति का सामना करने में हम हमेशा सक्षम नहीं हो सकते। इसके लिए अपनों से जुड़े रहना बेहद जरूरी है।


