खाने का सम्मान: शादी के सीजन में हमारी जिम्मेदारी

खाने का सम्मान: शादी के सीजन में हमारी जिम्मेदारी

इस समय हमारे भारत में शादियों का सीज़न चल रहा है। शादियों में एंजॉय करना हमारी परंपरा है। भारत की सिग्नेचर वेडिंग पूरी दुनिया में मशहूर हैं। यह अपने आप में एक बहुत बड़ा कारोबार है। इसमें कोई शक नहीं कि इसकी वजह से रोज़गार के बहुत से साधन भी छोटे-बड़े शहरों में मुहैया हो रहे हैं। अब शादी में खाना भी एक पनीर की सब्ज़ी, एक मिक्स वेज, दाल और दो मिठाइयों तक सीमित नहीं रहा। अब कॉन्टिनेंटल, थाई और ना जाने कितनी ही क्यूज़ीन्स का हम मज़ा लेते हैं।

एक मज़े की बात बताऊं, बहुत सी शादी में 60 प्रतिशत से भी ज्यादा लोग तो खाने-पीने का आनंद लेने ही पहुंचते हैं। हम यहां आपके खाने-पीने पर कोई कमेंट नहीं कर रहे। आखिर आप भी एक इज्ज़तदार इंसान हैं। बिन बुलाए नहीं जाते और जितना पेट में आता है, उतना ही खाते हैं। लेकिन एक गुज़ारिश है आपसे कि आप जब भी खाना अपनी प्लेट में निकालें तो उसे खाने की नीयत से ही निकालें। ऐसा ना हो कि आपने सिर्फ यह सोचकर निकाला कि देखते हैं कैसा होगा और एक-दो निवाले लेने के बाद "कुछ मजा नहीं आया" कहकर फेंक दिया।

माल दूसरे का है

यह जुमला मैंने अपने मौसी के ससुर जी से सुना था। वह एक बेहद अनुशासित इंसान थे। 90 के दशक में ही उनका देहांत हो गया था। वह अपनी डाइट को लेकर भी बड़े कॉन्शस थे। दिनभर में क्या खाते थे, यह भी फिक्स था।

लेकिन हां, उनकी नज़रें बड़ी ही पारखी थीं। वह अक्सर इस बात को लेकर हैरान रहते थे कि लोग शादी-पार्टी में "उड़ाने" के अंदाज़ से क्यों खाना खाने लगते हैं। वह कहा करते थे, "शादी-पार्टी में माल बेशक दूसरे का है लेकिन पेट तो अपना है।"

अगर आज वह इस दौर में होते तो जो कुछ हो रहा है, उससे और भी हैरान रह जाते। आज खाना जिस स्तर पर हम वेस्ट कर रहे हैं और उसके बारे में सोच भी नहीं रहे, यह अपने आप में एक चिंताजनक विषय बनता जा रहा है।

क्या हम कनेक्शन खो रहे हैं?

जब हम अपनी खाने से भरी हुई प्लेट को डस्टबिन में डालते हैं, तो यह भी समझ नहीं पाते कि न जाने कितने लोगों का ख्वाब होगा यह खाना।

गुलाब जामुन को ही देख लें। अक्सर लोग गुलाब जामुन दो या तीन निकाल लेते हैं और खाया एक से ज्यादा कभी जाता नहीं। यह हमारे भारतीय संस्कार ही हैं कि हम खाने की पूजा करते आए हैं। हम खाना कभी वेस्ट नहीं करते। हमारे कल्चर में कहा जाता है कि "खाना नाली में नहीं बहना चाहिए, खाना किसी के मुंह पड़ना चाहिए।"

लेकिन फिर शादियों में हम यह सिद्धांत क्यों भूल जाते हैं?

तो फिर क्या करें?

हम आपसे यह नहीं कह रहे कि आप शादी में जाएं तो बिना खाए ही वापस आ जाएं। आप मन भर के खुश होकर खाएं। लेकिन एक छोटा सा उसूल बना लीजिए कि आपको अपनी प्लेट में कुछ जूठन नहीं छोड़नी। इससे आप देखेंगे कि धीरे-धीरे खाना उतना ही निकालेंगे, जितना आप खा पाएंगे।

यह आदतें धीरे-धीरे आप अपने बच्चों में भी विकसित करें। इससे इनडायरेक्ट वे में फायदा आपकी सेहत पर भी होगा। आप ओवरईटिंग से बचेंगे और आपकी सेहत भी बनी रहेगी।

थोड़ा सोचना पड़ेगा

देखा जाए तो खाने के साथ हमारा दिल का रिश्ता होता है। बस खाने के स्वाद के साथ-साथ इसके बारे में भी थोड़ा दिल से सोचना शुरू कर दें। सोचिए, यह खाना जिस किसान के खेत से आया होगा, उस किसान ने कितनी मेहनत की होगी। न सर्दी देखी होगी और न बरसात।

यह कोई फिलॉसफिकल बात नहीं है। बस आप चाहें तो ऐसा आसानी से कर सकते हैं। वैसे भी जिंदगी में नज़रिया बदलने की ही तो बात होती है। जब हम नज़रिया बदलते हैं तो हमारे नज़ारे भी बदल जाते हैं।

जाते जाते एक बात, अगली बार जब आप किसी शादी में जाएं, तो इन बातों पर ज़रा ग़ौर कीजिएगा। शुक्रिया।

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