खेलोगे कूदोगे......कहावत के प्रति भले ही सोच बदल रही है लेकिन खेल अब भी करिअर नहीं

खेलोगे कूदोगे......कहावत के प्रति भले ही सोच बदल रही है लेकिन खेल अब भी करिअर नहीं

हाल ही में बैडमिंटन चैंपियन पीवी सिंधु के कोच गोपीचंद का साक्षात्कार पढ़कर बचपन की कहावत जेहन में कौंध गई। नब्बे के दशक के बच्चों का इस कहावत से कभी न कभी सामना जरूर हुआ होगा। वो कहावत हैपढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब। इस कहावत का उदाहरण देकर पेरेंट्स बच्चों को खेल-कूद में समय बर्बाद न करने की सलाह देते थे। उस दौर में पेरेंट्स का यही मानना था कि सिर्फ पढ़ाई करके ही करिअर बनाया जा सकता है। फिर एक दौर आया कि खेल-कूद के प्रति लोगों की सोच बदलने लगी। क्रिकेट से लेकर बैडमिंटन, टेनिस से रेसलिंग तक गेम्स में खिलाड़ियों की उपलब्धियों ने लोगों को सोच बदलने पर मजबूर कर दिया। अब वो दौर है जब पेरेंट्स बच्चों को खेल-कूद में आगे करने के लिए अकैडमी जॉइन कराने में भी पीछे नहीं रहते। लेकिन फिर बात जहां से शुरू की थी, वहीं पर आते हैं। साक्षात्कार में गोपीचंद की कही बातें सोचने पर मजबूर कर रही हैं कि क्या सच में आज भी खेल-कूद का नतीजा पहले जैसा ही है? यानी खेलने-कूदने के बाद करिअर बनेगा नहीं, खराब ही होगा? आइए, जरा समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर खेल में करिअर क्यों बनाना मुश्किल है।

खेल में टॉप प्लेयर भी गेम ओवर होने के बाद गायब हो जाते हैं

गोपीचंद ने अपने साक्षात्कार में कहा कि गेम में 99 प्रतिशत लोगों के हाथ सिर्फ असफलता ही आती है। केवल 1 प्रतिशत ही सचिन और सिंधु बन पाते हैं। सालों के समर्पण और मेहनत के बाद भी सभी खिलाड़ी देश के लिए मेडल नहीं ला पाते। यही नहीं, अगर सफल नहीं हो पाते तो उनके पास कोई दूसरा ऑप्शन नहीं होता जीवनयापन के लिए। उन्होंने यहां तक कहा कि कई बार जब खिलाड़ी उनके पास नौकरी की तलाश में आते हैं तो उन्हें दुख होता है। सालों की तपस्या के बाद भी वे रोजी-रोटी के लिए परेशान रहते हैं। वैसे भी भारत में सभी खेलों को बराबरी का दर्जा नहीं मिलता। उस पर खिलाड़ी को जब मेडल मिलता है तब लोग पहचानते हैं। लेकिन ये पहचान ज्यादा लंबी होगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है।

खिलाड़ियों को नौकरी के लिए करना पड़ता है संघर्ष

आप यह कह सकते हैं कि सरकार खिलाड़ियों को सरकारी नौकरी में कोटा देती है। तो आप बिलकुल सही कह रहे हैं। लेकिन इस नौकरी के लिए भी खिलाड़ियों की लंबी लाइन है। रेलवे, पुलिस या अन्य सरकारी नौकरी में कोटा के बावजूद खिलाड़ियों को नौकरी जाए, ये जरूरी नहीं। राष्ट्र के लिए मेडल जीतने वालों के पास भी आर्थिक सुरक्षा नहीं है। उन्होंने साक्षात्कार में एक खिलाड़ी के बारे में बात करते हुए कहा कि वह आर्थिक मदद के लिए पास आए तो उसकी हालत देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ। गोपीचंद ने तो यहां तक कह दिया कि अगर अमीर नहीं हो तो खेल में करिअर बनाने की न ही सोचें तो अच्छा है।

तो खेल में करिअर बनाने के लिए क्या हैं ऑप्शन?

         आज मिडिल क्लास पेरेंट्स भी बच्चों की जिद के आगे या खुद के अधूरे सपने पूरे करने के लिए खेल-कूद में करिअर बनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। आप बच्चों को प्रोत्साहित तो करें, यह बेहद जरूरी भी है। लेकिन उन्हें असफलता के बाद जीवन में तैयार भी करें। बच्चे की प्रतिभा समझने की कोशिश करें। अगर लगे कि सच में खेल में उसका करिअर बन सकता है तो भी उसे किसी न किसी स्किल ट्रेनिंग या पढ़ाई पूरी करने को प्रोत्साहित करें। क्योंकि खेल में कई बार खिलाड़ी पूरी उम्र लगा देने के बाद भी मुकाम नहीं पाते। ऐसे में उन्हें अपने खेल के पैशन को और जीविका चलाने के लिए शिक्षा या स्किल को अलग रखने में मदद करें।

          वरना यह कहावतपढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब और खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब’, कल भी सार्थक थी, आज कुछ हद तक सार्थक है और आगे जाने क्या ही होगा।

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