वेबसीरीज के ज़माने में जहां साइंस फिक्शन, हॉरर और थ्रिल का अपना एक अलग जोनर है वहीं पुरानी परिपाटी में लिपटर मिडल क्लास को टारगेट करती वेबसीरीज का भी अपना एक अलग दौर है। यह समय वेबसीरीज का है। और अगर हम दिनों चर्चा की बात करें तो पंचायत के मेकर्स की वेबसीरीज ग्राम चिकित्सालय भी खासी पसंद की जा रही है। वहीं पंचायत के चौथे सीज़न का तो लोग बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। इसका चौथा सीज़न जुलाई के पहले सप्ताह में रिलीज़ होगा। अगर हम दोनों ही सीरीज़ की बात करें तो इनमें कुछ लार्जर दैन द लाइफ, कोई एक्शन, कोई हंगामा नहीं है। इसमें कॉस्ट्यूम पिक्चेराइजेशन सभी कुछ नॉर्मल सा है। हां चाहें सीनियर एक्टर हों या जूनियर अभिनय के स्तर पर सभी ने कमाल किया है। लेकिन यहां हम इन दोनों वेबसीरीज के बारे में चर्चा करने नहीं बैठें। बल्कि इस वेबसीरीज के ज़रिए भारत के उस कैनवस में झांकने की कोशिश कर रहे हैं जहां हाई फाई और फैंसी लाइफ स्टाइल से सराबोर लोग सचिव जी, प्रधान जी जैसे किरदारों को पसंद कर रहे हैं।
शायद मन वहीं है
आज भी हमारे भारत में दो तरह के नागरिक हैं। एक इंडियन और एक भारतीय। गांव, कस्बे, छोटे शहरों में आज भी आपको भारत मिल जाएगा। यहां रिश्तों को संभाल कर रखा जाता है। घर आया मेहमान आज भी इन गांव देहातों में पूजनीय है। पड़ोसी की बेटी जब शादी होती है तो रिश्तेदारों के रुकने के लिए महंगे होटल किराए पर नहीं लिए जाते। पड़ोसी खुशी खुशी अपने कमरे खाली करते हैं। वहीं ब्याही बिटिया जब लौटकर घर आती है तो उसके आने की खुशी पड़ोस में उसकी काकी मां को भी होती है। इन गांव में आज भी नेबर्स अंकल आंटी नहीं बन पाए। पापा से छोटे हैं तो काका और पापा से बड़े हैं तो ताऊजी। यह नाम कहने भर के नहीं होते। इन पड़ोसियों से सच में दिल के तार जुड़े हुए होते हैं।
लौकी से आप समझ सकते हैं
अगर आपने पंचायत देखी है तो आपने देखा होगा कि सचिव को प्रधान जी अपने खेत की टूटी हुई लौकी पकाने के लिए देते हैं। गांव में ऐसा ही होता है। सच में लोग इतने ही सहज होते हैं। वो एक दूसरे को प्यार देते हैं। कोई बहुत महंगी चीज़ें आपस में नहीं देते। लौकी, टिंडे, तुरई हरी मिर्च और टमाटर की सह लेन देन प्यार को सींचने के लिए काफ़ी होती है। वहां कोई प्लांड गैट टुगेदर नहीं होते। बस, जब भी मिलते हैं पूरे जोश से मिलते हैं। एक दूसरे के हालचाल पूछते हैं और सच में एक दूसरे के लिए फ़िक्रमंद भी होते हैं। प्रहलाद चाचा को ही देख लें। कहने को तो उनके बेटे के गुज़रने के बाद उनका कोई अपना बचा नहीं लेकिन फुलेरावासी उन्हें कभी अकेला नहीं होने देते। वो भी अपने बेटे के जाने के ग़म को बहुत हद तक कम कर चुके हैं। सच में गांव में ऐसा ही होता है एक का दुख सभी का दुख और एक ही खुशी सभी की खुशी होती है।
ज़िंदगी में अपनों का साथ
पंचायत सीरीज़ ने जो गांव वालों की ज़िंदगी का विवरण दिया है वो सरल होते हुए भी आज के ज़माने में बहुत अनूठा सा मालूम होता है। लोग जब वेबसीरीज में इस तरह की ज़िंदगी को देख रहे हैं तो समझ पा रहे हैं कि ज़िंदगी इतनी मुश्किल नहीं जितना हमने उसे बनाया है। सबसे ख़ास बात है इस तरह की ग्रामीण जीवन से जुड़ी वेबसीरज बड़े शहरों में ज़्यादा पसंद की जा रही हैं। शायद वो लोग जो बहुत बड़े सपने लेकर इन शहरों में आए थे। लेकिन सुकून का रास्ता उनकी मंज़िल में आता ही नहीं। तभी तो लॉन्ग वीकएंड पर लोग पहाड़ों में गांवों में जाना पसंद कर रहे हैं। शायद वो जो ज़िंदगी के भागने की रेस में जो पीछे छूट गया उसे पाने की रेस में। ऐसा इसलिए क्योंकि इन्हें पता है कि गांव के रास्तों में चलने का मज़ा क्या होता है। फ्रैशली प्लक्ड वेजीटेबल्स जो इन्हें फॉर्म हाउसेज़ रुपी विला में मिल रही हैं वो तो यह रोज़ ही खाया करते थे और नहर के पानी में नहाने में जो मज़ा आता था। वो किसी भी जकुज़ी में आ ही नहीं सकता।