क्या हम कुछ प्रोग्रेसिव मुद्दों पर बात कर सकते हैं?

क्या हम कुछ प्रोग्रेसिव मुद्दों पर बात कर सकते हैं?

यह देश जिसमें हम रहते हैं, इसका नाम भारत है भारत l इसे हम इंडिया भी कहते हैं । ना जाने कितनी ही बार बचपन में स्कूल में होने वाले डिबेट कंपटीशन में हमने अपने भारत की ख़ूबसूरती और उसकी ख़ासियत अपनी ही ज़ुबानी बताई है। हम भारत के लोग अलग-अलग पहनावे और खान-पान के बावजूद एक दूसरे के साथ बहुत ख़ुशी- ख़ुशी रहते आए हैं।

अपने दोस्त कार्तिक की शादी में कामरान बहुत ही रोमांचक बारात डांस करता है, तो कार्तिक को पता है कि कामरान के निकाह के बाद जब दुआ मांगी जा रही होती है, तो सिर पर रुमाल रखकर "आमीन" कहने से वह नहीं हिचकिचाता। यही वह ख़ासियत है जो हमारे अंदर है। विविधता में एकता का भाषण देने की जरूरत नहीं होती, हम अपने व्यवहार में अपनी असली ज़िन्दगी में इन बातों को अमल में लाते हैं।

लेकिन, लेकिन, लेकिन इन सभी के साथ चर्चाओं का विषय बहुत अलग हो चुका है। सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं भी बहुत हैरान कर देने वाली हैं। हम किसी भी एक धर्म का समर्थन नहीं कर रहे, बल्कि खुद को और आपको यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि धर्म से जुड़ी इन बातों से क्या हम डेवलपिंग कंट्री से डेवलप्ड कंट्री में बदल जाएंगे या फिर बहुत पीछे कहीं गर्त में चले जाएंगे।

ऑफिस में ही देख लें

बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। हम अपने ऑफिस में ही देख लें। हम अलग-अलग शहरों से और परिवारों से आते हैं। इसके बावजूद भी हम एक दूसरे के साथ बहुत अच्छे तालमेल के साथ रहते हैं। अगर हमारा कोई साथी बिहार से होता है, तो हम कोशिश करते हैं कि वह आराम से अपने शहर छठ के मेले पर पहुंच जाए। वहीं बंगाल के अपने ऑफिस के साथी से हमने बंगाल की दुर्गा पूजा के पंडालों और वहां नवरात्र की रौनक़ को जाना है। कहने का मतलब है अलग-अलग चीजों को जानना और उन्हें स्वीकार करना हम भारतीयों की फितरत में शामिल है।

तो फिर यह क्या

लेकिन इसके बावजूद भी इस बात को हमें समझना होगा कि सोशल मीडिया पर कुछ सो-कॉल्ड विचारक ही ना जाने किस तरह की चीजें हमें परोस रहे हैं। इन विचारों को अगर आप पढ़ने लगें, तो आपको ऐसा लगेगा कि गांधी जी ने इस भारत का तो सपना नहीं देखा होगा। चाहे कोई भी समुदाय क्यों ना हो, आखिर यह कट्टरवाद आ कहां से रहा है? जो लोग इस तरह की चीजें लिख या बोल रहे हैं, क्या वाकई में उनकी सोच इस स्तर पर आ चुकी है? इतनी नफ़रत आई कहां से है उनके अंदर?

आप खुद को बदल लें

अब ऐसा तो है नहीं कि हम लोग कोई बड़े विचारक हैं कि हमारी बातें मान ली जाएंगी। लेकिन हां, ख़ुद को इस माहौल से थोड़ा दूर रखने की कोशिश कर लें। आप चाहे किसी भी समुदाय से क्यों ना हो, केवल भावनाओं में बहकर किसी भी इस तरह की विचारधारा वाली पोस्ट को लाइक करने से बचना है। आप अपने दिल पर हाथ रखें और समझें कि एक भारतीय के तौर पर क्या कर सकते हैं। इस बात पर चर्चा कीजिए ना कि रुपये के मुकाबले आखिर डॉलर महंगा क्यों होता जा रहा है। रोज़गार के साधन किस तरह से जेनरेट हों? क्यों सोना दिन-ब-दिन एक आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है।

अब जब यह सब बातें हुई हैं, तो इक़बाल का एक शेर याद आ रहा है:

"मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।"

आज बस इतना ही। बस इतनी सी गुज़ारिश है कि गड़े मुर्दे उखाड़ने से कुछ नहीं होगा। हम और आप कुछ प्रोग्रेसिव सोच कर हमारे अपने भारत को बेहतरीन बना सकते हैं।

(यह लेखक/लेखिका के अपने निजी विचार हैं)

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