चलो बारिश के मौसम में गुलज़ार की नज़्मों से दिल के मौसम को गुलज़ार कर लें

चलो बारिश के मौसम में गुलज़ार की नज़्मों से दिल के मौसम को गुलज़ार कर लें

गुलज़ार अब वो शख्सियत बन चुके हैं जिन्हें देखकर नज़्मों, ग़ज़लों और शब्दों की याद आती है। जब वो लिखते हैं तो लफ्ज़ महज़ लफ्ज़ ना रहकर जज़्बात बन जाते हैं। उनकी लेखनी से ही तो हमें पता चला कि बारिश की बूंदें जब टीन की छत पर पड़ती हैं तो कोई गीत सा गाती लगती हैं। वो बूंदों की स्याही में जज़्बात के कलम को डुबोकर ज़ेहन के पन्नों पर कहानी लिखने में माहिर हैं। हम जैसे आज की जेनरेशन के लोगों की दोस्ती बारिश से उन्होंने ही करवाई है। बारिश में खिड़की खोलकर बूंदों को अपनी हथेली पर महसूस करना गुलज़ार साहब ने ही सिखाया है। वरना तो हम शायद समझ ही नहीं पाते कि बूंदों से बचा नहीं जाता, वो तो हमारी दोस्त हैं। पेश है आपके लिए गुलज़ार साहब की बारिश से जुड़ी कुछ नज़्में जहां कहीं आपको मिट्‌टी की महक आएगी तो कहीं छोटे बच्चों की पानी में अठखेलियां।

दोनों ने बारिश देखी

यह पहली नज़्म जो हमने आपके लिए छांटी है, वो एक मासूम से इश्क़ की है। वो बात है बूंदों की, दो लोगों के मिलने की। तो चलिए आप भी महसूस कीजिए कि बिजली के तारों से टपकती बारिश की बूंदें कैसी होती हैं।

देर तक बैठे हुए, दोनों ने बारिश देखी
वो दिखाती थी मुझे बिजली के तारों पे लटकती हुई बूंदें
जो ताकुब में थी दूसरे के
और एक-दूसरे को छूते ही तारों से टपक जाती थी
मुझको ये फ़िक्र के बिजली का करेंट
छू गया नंगी किसी तार से तो
आग के लग जाने का भयास होगा।

उसने काग़ज़ की कई कश्तियां पानी में उतारी
और ये कह के बहा दी के... समंदर में मिलेंगे
मुझको ये फ़िक्र के इस बार भी सैलाब का पानी
कूद के उतरेगा कोह्सहर से जब
तोड़ के ले जाएगा ये कच्चे किनारे।

ओक में भरके वो बरसात का पानी
अधभरी झीलों को तरसाती रही
वो बहुत छोटी थी, कमसिन थी
वो मासूम बहुत थी।

आबशारों के तरन्नुम पे
कदम रखती थी
और गूंजती थी
और मैं उम्र के इफ़्कार में घूम
तजुर्बे-हमराह लिए
साथ ही साथ मैं
बहता हुआ... चलता हुआ... बहता गया...

अब दूसरी की बारी

अब चलते हैं दूसरी नज़्म की तरफ, जो बताती है कि बारिश सिर्फ बरसकर नहीं रह जाती। वो अपने कुछ निशान तो कभी किसी की याद भी छोड़ जाती है।

बारिश होती है जब
तो इन गारे पत्थर की दीवारों पर,
भीगे-भीगे नक़्शे बनने लगते हैं।
हिचकी-हिचकी बारिश तब...
पहचानी-सी एक लिखाई लिखती है
बारिश कुछ कह जाती है।
ऐसा ही अश्क़ों से भीगा
इक ख़त शायद, तुमने पहले देखा हो?

साइकिल का पहिया भी

अगर आप बारिश से प्यार करते हैं तो गुलज़ार की इस नज़्म को बार-बार पढ़िए। यह नज़्म बताती है कि जब बारिश आती है तो शहर का रूप कैसे बदल देती है। टीन की छत, तिरपाल का छज्जा सभी कुछ नहीं, बहुत कुछ कहने लगते हैं।

बारिश आती है तो मेरे शहर को कुछ हो जाता है
टीन की छत, तिरपाल का छज्जा, पीपल, पत्ते, पर्नाला
सब बजने लगते हैं।

तंग गली में जाते-जाते,
साइकिल का पहिया पानी की कुल्लियाँ करता है।

बारिश में कुछ लम्बे हो जाते हैं क़द भी लोगों के
जितने ऊपर हैं, उतने ही पैरों के नीचे पानी में
ऊपर वाला तैरता है तो नीचे वाला डूबके चलता है।

ख़ुश्क था तो रस्ते में टिक-टिक छतरी टेक के चलते थे
बारिश में आकाश पे छतरी टेक के टप-टप चलते हैं!

एक शिकायत भी

गुलज़ार साहब की नज़्मों से पता चलता है कि उन्हें बारिश से बहुत प्यार है। लेकिन कुछ लोग बारिश के आने से पहले उससे बचने की तैयारी कर लेते हैं। यह बात शायद गुलज़ार साहब को पसंद नहीं है। इस नज़्म से इस बात को समझा जा सकता है।

बारिश आने से पहले
बारिश से बचने की तैयारी जारी है
सारी दरारें बन्द कर ली हैं
और लीप के छत, अब छतरी भी मढ़वा ली है।

खिड़की जो खुलती है बाहर
उसके ऊपर भी एक छज्जा खींच दिया है।

मेन सड़क से गली में होकर, दरवाज़े तक आता रास्ता
बजरी-मिट्टी डाल के उसको कूट रहे हैं!

यहीं कहीं कुछ गड़्‌डों में
बारिश आती है तो पानी भर जाता है
जूते, पांव, पाएंचे सब सन जाते हैं।

गले न पड़ जाए सतरंगी
भीग न जाएं बादल से
सावन से बच कर जीते हैं
बारिश आने से पहले
बारिश से बचने की तैयारी जारी है।।

एक गुज़ारिश भी

गुलज़ार साहब की एक गुज़ारिश भी है लोगों से बारिश को देखने की और उसे जीने की। वो अपनी इस नज़्म में कहते हैं कि हम किस तरह बारिश से जुड़कर कुदरत से दोस्ती कर सकते हैं।

कार का इंजन बंद कर के
और शीशे चढ़ा कर बारिश में
घने-घने पेड़ों से ढकी सेंट पॉल रोड पर
आंखें मींच के बैठे रहो
और कार की छत पर
ताल सुनो तब बारिश की!

गीले बदन कुछ हवा के झोंके
पेड़ों की शाखों पर चलते दिखते हैं।

शीशे पे फिसलते पानी की
तहरीर में उंगलियां चलती हैं।
कुछ ख़त, कुछ सतरें याद आती हैं
मॉनसून की सिम्फ़नी में!!...

बस अब जब भी बारिश आए तो इन लफ्ज़ों की अंगुली पकड़कर आप भी इस मौसम को महसूस करिएगा।

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