हमने बेटियों को पैरों पर खड़ा होना सिखा दिया, लेकिन बेटों को काम में हाथ बंटाना क्यों नहीं सिखा पाए?

हमने बेटियों को पैरों पर खड़ा होना सिखा दिया, लेकिन बेटों को काम में हाथ बंटाना क्यों नहीं सिखा पाए?

अगर हम अपने घर की कल्पना करते हैं तो एक साफ-सुथरा, व्यवस्थित घर चाहते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि जब हम अपना फ्रिज खोलें तो वह बहुत ऑर्गेनाइज़ हो। उसमें चटनियां, उबले आलू, एयर-टाइट डिब्बों में कटी हुई हरी सब्जियां सब हों। हां, हम यह काम करना नहीं चाहते लेकिन चाहते हैं कि सब कुछ ऐसा ही नज़र आए। इस काम को अंजाम देती हैं घर की महिलाएं। हम सभी जानते हैं कि घर चलाना कोई आसान काम नहीं है। लेकिन अगर इसे सही तरीके से ना चलाया जाए, तो सभी की ज़िंदगियां प्रभावित होती हैं। लेकिन एक अजीब बात है कि ना तो इन कामों को कोई अहमियत देता है, और ना ही करने वाले को इस बात का अहसास होता है।

हम आज के ज़माने के लोग हैं

हां भई, हम आज के ज़माने के लोग हैं। अब हमारी बेटियां घर तक सीमित नहीं हैं। हमने उन्हें अपने पैरों पर खड़ा कर दिया। हां, सही है आज हमारी बेटियां फाइनेंशियल इंडिपेंडेंट हैं। हमें अच्छा लगता है कि हमारी बेटी खुद कमा रही है, आत्मनिर्भर है। लेकिन कभी सोचा है कि इस मजबूत बेटी के कंधों पर कितना बोझ आ जाता है? वो हर जगह खुद को साबित कर रही है। वो रोज़ ऑफिस में एक बेहतरीन कर्मचारी बनकर दिखा रही है। वहीं, घर पर अगर वह जॉइंट फैमिली में रहती है, तो उसे रोज़ साबित करना होता है कि वह घर को भी बेहतरीन तरीके से चलाने का हुनर जानती है। ऐसे में कहीं ना कहीं वह थक रही है, वह टूट रही है। शायद इसलिए, क्योंकि हमने बेटियों को तो पैरों पर खड़ा कर दिया, लेकिन अपने बेटों को घर चलाने का हुनर नहीं सिखा पाए।

बर्नआउट सिंड्रोम

इसका नतीजा यह हुआ कि भारत में कामकाजी महिलाओं में "बर्नआउट सिंड्रोम" शादी के बाद अक्सर देखने को मिलता है। घर और बाहर खुद को साबित करते-करते महिलाएं थक जाती हैं। ऐसे में वे "बर्नआउट सिंड्रोम" का शिकार हो जाती हैं।

बर्नआउट सिंड्रोम एक साइकोलॉजिकल इशू है, जो मेंटल हेल्थ को प्रभावित करता है। लगातार काम करने, समाज के प्रेशर और एप्रिशिएशन की कमी की वजह से महिलाएं इस प्रॉब्लम का शिकार हो जाती हैं। आपने भले ही इस टर्म के बारे में नहीं सुना होगा, लेकिन आपने कई महिलाओं को देखा होगा जो शादी के बाद जॉब छोड़ देती हैं यह कहकर – "मैनेज नहीं हो पा रहा था।"

इस सिंड्रोम की शिकार महिलाओं को काम में मन नहीं लगता, एंज़ाइटी बढ़ जाती है, इमोशनली खुद को अकेला महसूस करती हैं। इस तरह के तनाव के चलते वह ऑफिस में अपनी डेडलाइन पूरी नहीं कर पातीं, समय पर काम नहीं कर पातीं, और अंत में अपना जॉब छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं।

घर उनका भी है

ऐसा नहीं है कि हम महिलाओं को खुश रखने के लिए घर के कामों से दूर कर दें। ऐसा तो शायद हमारे समाज में पॉसिबल नहीं है। लेकिन हां उन्हें घर के कामों के साथ तो जूझते हुए नहीं छोड़ना चाहिए। न्यूक्लियर फैमिली में और महानगरों में स्थिति थोड़ी सही है यहां पर घरेलू सहायिका और बहुत से गैजेट्स के साथ महिलाएं घर के कामों को अंजाम दे रही हैं। लेकिन जॉइंट फैमिली और छोटे शहरों में काम करने की एक मशीन सी बन गई हैं। घर में इन महिलाओं के साथ रहने वाले इतना तो कर सकते हैं कि उनके साथ उनके कामों में भले ही हाथ ना बंटाएं लेकिन अपने काम तो खुद कर लें। और आप जिस चीज को जहां से उठा रहे हैं उसे वहीं वापस रख दें। अपनी अलमारी खुद जमा लें, अपने मैले कपड़े लॉन्ड्री बैग में खुद डाल दें। अगर आपका सलाद या रायता खाने का मन है तो उसे खुद करने की कोशिश करें। अगर आपके घर में महिला है इसका मतलब यह नहीं है कि वो बस काम ही करती रहे। घर उनका भी है। उन्हें भी उस घर में आराम करने का अधिकार है।

वो तारीफें

अक्सर देखा गया है कि लोग अपनी मां के हाथ की खाने की तारीफें तो करते हैं लेकिन अपनी बीवी के खाने की तारीफ करने में वो कंजूसी बरतते हैं। हां लेकिन अगर आलोचना करनी हो तो उसका पूरा पोस्टमार्टम करने की जिम्मेदारी तो पति की ही होती है। आप एक बात याद कर लें कि यह बात एकदम सौलह आने सच है कि आपकी मम्मी दुनिया की बेहतरीन कुक हैं और उनका खाना ऐसा होता है कि सभी अंगुलियां चाटते रह जाते हैं। लेकिन आपकी वाइफ आपकी मम्मी की नहीं आपकी बहनों की उम्र की है। उसे भी जब आपकी मम्मी की तरह बीस तीस साल का एक्सपीरियंस हो जाएगा तो उसके खाने में भी वहीं परफेक्शन आ जाएगा। अब आप समझ गए होंगे कि आपकी वाइफ के खाने में आप मां जैसा मजा ढूंढने की कोशिश नहीं करेंगे। हमेशा नुक्ता चीनी मत करिए कभी उसकी कोशिशों को भी एप्रिशिएट करिए।

जब आप ऐसा करेंगे तो आप देखेंगे कि आपकी वाइफ के चेहरे पर एक मुस्कुराहट वापिस आ गई है। और शायद जब वो फिलहाल चर्चा में आई 'मिसेज' जैसी कोई फिल्म देखे तो इस तरह के कंटेंट पर हंसकर कहे यह फिल्में पता नहीं कैसे बन जाती हैं। ऐसा असली जिंदगी में तो नहीं देखा। लेकिन फिलहाल की स्थिति की बात करें तो अक्सर महिलाएं मिसेज में सान्या मल्होत्रा के किरदार के साथ खुद को जोड़कर देख रही हैं। आप खुद सोचिए कि क्या तरह की स्थिति इस प्रोग्रेसिव सोसाइटी में होनी चाहिए थी?

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