जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की शुरुआत 30 जनवरी से हो चुकी है। शो के पहले दिन जावेद अख्तर के सेशन "ज्ञान सीपियों" में उन्होंने वो कहा जो वाकई हम लोगों के लिए एक चिंतनीय विषय है। वे बोले, भाषा को लेकर क्या हो रहा है आजकल? बच्चे अपनी मादरी ज़ुबान से ही दूर होते जा रहे हैं। बच्चों को उनकी ज़ुबान से दूर कर दूसरी भाषा में पारंगत करना वैसा ही है जैसे एक पेड़ की शाखाओं को बिना जड़ के बढ़ाना।
इस बार भी सवाल छोड़ गए जावेद
जावेद अख्तर जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की शान रहे हैं। वे कई सालों से वक्ता के तौर पर जेएलएफ में आते रहे हैं। चाहे वो बात सिनेमा की करें या फिल्मी गीतों की, ऑडियंस के बीच में वो कुछ ऐसा छोड़ जाते हैं जो एक सवाल बनकर लोगों के ज़ेहन में रह जाता है। जेएलएफ के पहले दिन भी ऐसा ही हुआ। उन्होंने कहा, आप बाहर के मुल्कों में देखिए, लोगों को अपनी भाषा से इश्क़ है। वो किसी भी कीमत पर उसे छोड़ना नहीं चाहते, लेकिन आज का हमारा हिंदुस्तान अपनी भाषा को छिटक कर आगे बढ़ने को ही अपनी डेवलपमेंट समझ रहा है। जावेद अख्तर के इस सेशन में उनके साथ सुधा मूर्ति और अतुल तिवारी भी मौजूद थे।
लेकिन अंग्रेज़ी का विरोध नहीं
जावेद अख्तर भले ही सेशन के दौरान हिंदी भाषा की हिमायत करते नज़र आए, वो भाषा के महत्व के बारे में बता रहे थे, लेकिन उन्होंने अंग्रेज़ी भाषा का विरोध नहीं किया। बल्कि उन्होंने कहा कि, अगर आज के जमाने में आप अपने बच्चे को अंग्रेज़ी स्कूल में दाखिला नहीं दिलवाएंगे, तो यह उनके साथ गलत होगा। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि आपके बच्चे सिर्फ इंग्लिश ही जानते हों। याद रखिए कि नींव जब मजबूत होती है, तभी आगे की इमारत खड़ी होती है।
आने वाली पीढ़ी भी तभी विकास कर पाएगी, जब वो अपनी जड़ों को मज़बूती से पकड़कर आगे बढ़ेगी। दूसरी भाषा को सीखना अपनी भाषा को छोड़कर नहीं होना चाहिए।
कहीं ऐसा तो नहीं...
जावेद अख्तर की बातों पर अगर हम ध्यान दें, तो समझ पाएंगे कि वाकई में आगे बढ़ने की चाह में हम किसी कदर लापरवाह हो चुके हैं। आज हम बहुत से पेरेंट्स को देखें, तो वे शान से बताते हैं कि भई, हमारे बच्चों को हिंदी में कोई इंट्रेस्ट नहीं है, उन्हें हिंदी पढ़ी ही नहीं जा रही!
सोचकर देखिए, हमें इस पर शर्म आनी चाहिए कि हम अपनी ही भाषा के साथ किस तरह का सुलूक कर रहे हैं। जब बच्चा अंग्रेज़ी में गिटपिट करता है, तो हमें बहुत अच्छा लगता है, लेकिन हमारे बच्चे को ना तुलसीदास के दोहे याद करने में रुचि है, और ना ही संत कबीर के जीवन दर्शन का पता है।
कहीं ऐसा न हो कि जो हश्र हमने और आपने उर्दू ज़ुबान का किया है, उसी हाल पर हम हिंदी को पहुंचा दें! ख़ैर, अभी भी देर नहीं हुई। अगर हम हिंदी को अपने दिल में उतारेंगे, तो वो फिर से सांस लेने लगेगी।
यह विकास नहीं, बल्कि अपनी जड़ों से कटने की शुरुआत है
बात सिर्फ हिंदी की नहीं, यह हर मुल्क की बात है। एक भाषा उस देश की संस्कृति होती है। अगर आप अपनी आंखें खोलकर देखेंगे, तो समझ पाएंगे कि दूसरे मुल्कों ने अपनी भाषा को कितनी मज़बूती से पकड़ा हुआ है। आपको अगर फ्रांस जाना है, तो आपको फ्रेंच आनी ही होगी। यही बात जर्मनी पर भी लागू होती है। लेकिन हम हिंदुस्तानी शायद दिल से अपनी भाषा से जुड़ ही नहीं पाए।
तभी तो हम सबसे पहले अपनी भाषा को छोड़कर दूसरी भाषा में बात करने को अपनी शान समझते हैं। आप एक नहीं, दस विदेशी भाषाएं सीखिए। लेकिन अपनी भाषा का अपमान कर दूसरी भाषा का सम्मान करना ना ही समझदारी है और ना ही विकास। यह तो हनन है – अपना और अपनी संस्कृति का।