जेएलएफ के पहले दिन नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी अपनी आत्मकथा 'दियासलाई' को लेकर आए थे। सभी जानते हैं कि कैलाश सत्यार्थी का जीवन बाल मजदूरी के खिलाफ एक आंदोलन के तौर पर चल रहा है। बच्चों के हित में उन्होंने अनेकानेक प्रयास किए हैं। इसके लिए साल 2014 में उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है। जेएलएफ में बुक लॉन्च के दौरान उन्होंने एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर अपने जीवन की कई बातों पर प्रकाश डाला।
वो कविता जिसने बदला जीवन
जब कैलाश 15 साल के थे, तब उन्होंने एक कविता 'दियासलाई' लिखी। इस कविता ने ही जीवन को देखने के उनके नज़रिए को पूरी तरह बदल दिया। जेएलएफ में अपने सेशन 'फर्स्ट एडिशन: दियासलाई बाय कैलाश सत्यार्थी' की शुरुआत उन्होंने अपनी कविता 'दियासलाई' के साथ की। जब उन्होंने यह कविता सुनाई, तो इसके हर शब्द का मर्म उनकी आँखों और भावों से झलक रहा था। कविता कुछ इस तरह थी—
"कल मैं एक दियासलाई की तीली बनकर
खुद को परिभाषित करूंगा,
तब मोमबत्ती, अगरबत्ती बन,
जलने की जरूरत नहीं पड़ेगी मुझे।
भले ही मैं रहूं - न रहूं,
तुम रहो - न रहो,
ढेरों मोमबत्तियां और अगरबत्तियां जरूर जलेंगी।
हमारे बच्चे रोशनी और खुशबू में पलेंगे।"
वक्त तय करता है
कैलाश सत्यार्थी ज़मीन से जुड़े एक इंसान हैं। सेशन में वे कहने लगे कि "मुझे खुद भी एहसास नहीं था कि किशोरावस्था में लिखी मेरी यही कविता मेरा जीवन दर्शन और मेरी आत्मकथा का शीर्षक भी बन जाएगी।" उन्होंने आगे कहा—
"हाँ, आप इस किताब से बहुत उम्मीद मत लगाइए। इसमें कुछ भी बहुत खास नहीं है। मैं एक आम इंसान हूँ और यह मेरी एक आम सी कहानी है। मेरी इस कहानी में सफलता-असफलता, आशा-निराशा, अच्छाई-बुराई, मज़बूती-कमज़ोरी, गुण-अवगुण, सुख-दुःख, लालच-त्याग आदि सभी चीजें शामिल हैं। हाँ, इन सबके बावजूद रुक कर बैठ जाना मैंने नहीं सीखा।"
सपने अभी बाकी हैं
"मैं थमा नहीं हूँ, मैं रुका नहीं हूँ, मेरी यात्रा अभी जारी है और सपने भी पूरे नहीं हुए। इसलिए मैं आह्वान करता हूँ कि इस पुस्तक को पढ़ने के बाद करुणा के वैश्वीकरण के मेरे नए आंदोलन में आप सहभागी बनें। अगली आत्मकथा में मेरी कहानियों के साथ आपके क़िस्से भी जरूर शामिल होंगे।"
सेशन में उन्होंने कहा कि "मैं जाति-धर्म जैसी व्यवस्थाओं में विश्वास नहीं करता। इसी के तहत मैंने अपना नाम कैलाश शर्मा से कैलाश सत्यार्थी रख लिया।"
क्या लिखा एक्स पर
जेएलएफ में कैलाश सत्यार्थी का सेशन खचाखच भरा था। लोग इस बात से हैरान थे कि नोबेल पुरस्कार मिलने के बावजूद भी कैलाश सत्यार्थी बार-बार खुद को "साधारण इंसान" और "आम आदमी" कह रहे थे। एक्स (पूर्व में ट्विटर) पर उन्होंने लिखा—
"नोबेल पुरस्कार मेरे लिए कोई निजी उपलब्धि नहीं थी, इसलिए 10 साल पहले संत कबीर का दोहा 'तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर...' दोहराते हुए, उसे देश को समर्पित कर दिया। आज वही भावना लेकर अपनी आत्मकथा 'दियासलाई' भी आपके हाथों में सौंप रहा हूँ। यह सिर्फ मेरी कहानी नहीं, यह मेरे परिवार और साथियों के उन सपनों, संघर्षों और उम्मीदों की लौ है, जो तूफान से भी टक्कर ले लेती है लेकिन बुझने से इनकार कर देती है। अब यह किताब आपकी है— आप इसे पढ़ें और तय करें कि मैं आपके दिल और विचारों में कहाँ खड़ा हूँ?"
और आइने के सामने खींचे फोटो
अब यह सादगी ही है कि कैलाश सत्यार्थी ने कहा— "मैं एक सपना देखता था कि कभी मैं किसी नोबेल पुरस्कार विजेता के साथ फोटो खिंचवाऊँगा। जब मुझे नोबेल मिला तो घर आकर पता है मैंने क्या किया? आइने के सामने खड़ा हुआ और मोबाइल से खूब फोटो खींचे।"
ख़ैर, हम उम्मीद करते हैं कि वे अपने सपनों को पूरा करें। वे बाल मजदूरों के लिए एक मसीहा के तौर पर उभरे हैं।